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कौमी एकता की अनूठी मिसाल छपरा जिले के मशरख प्रखंड के बड़का अरना गांव का छठ घाट

ANUP NARAYAN by ANUP NARAYAN
November 2, 2019
in Saran
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कौमी एकता की अनूठी मिसाल छपरा जिले के मशरख प्रखंड के बड़का अरना गांव का छठ घाट
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मशरख। आस्था के महापर्व छठ के भक्ति भाव में जहां पूरा बिहार डूबा हुआ है आइए हम आपको लिए चलते हैं छपरा जिले के मशरख प्रखंड के अरना पंचायत के बड़का अरना गांव के छठ घाट जहां मस्जिद से निकलती आजान व बरहम बाबा के स्थान के बीच अवस्थित है अनूठा छठ घाट. घोघारी नदी के तट पर अस्थाई बने छठ घाट पर प्रतिवर्ष इस गांव के हजारों लोग अरध अर्पित करते हैं नदी तट के पूरब तट पर मस्जिद है जबकि पश्चिम तट पर बरह्म बाबा और देवनाथ बाबा का स्थान जो बरसों से आस्था का केंद्र रहा है कभी भी दोनों समुदाय के लोगों के बीच किसी प्रकार की अनबन नहीं हुई छठ महापर्व पर लोग इस घाट पर अरध्य देते हैं तो दूसरी तरफ से  भारी तादाद में मुस्लिम समुदाय के लोग श्रद्धा और आस्था के सैलाब में डूबे छठ व्रतियों के भक्ति भावना को देखने के लिए जुटते है. वरिष्ठ टीवी पत्रकार अनूप नारायण सिंह का यह गांव है उन्होंने बताया वर्षो से यह परंपरा चली आ रही है आस्था दोनों तरफ है आस्था में सबसे बड़ा मानवीय पक्ष है। नदी के पूर्वी तट पर मुस्लिम आबादी जबकि पश्चिमी तट पर हिंदू आबादी है।पंचायत एक ही हैं.पूरब साईड में ताजिया का मेला लगता है तो हिंदू श्रद्धालुओं मेला देखने जाते हैं इधर जब छठ होता है पूरी सतर्कता के साथ उधर के लोग हमारी भक्ति भावना को देखते हैं यह मिसाल अनूठा है. ग्रामीण बताते हैं कि कभी भी दोनों पक्षों के बीच किसी प्रकार की अनबन नहीं हुई छठ की अलौकिक छटा के बीच में धार्मिक एकता की अनूठी मिसाल बने इस गांव के प्रख्यात चिकित्सक डा ललन पाठक बताते हैं कि एक तरफ मस्जिद दूसरी तरफ मुस्लमानो का धार्मिक स्थल है और बीच में नदी दोनों धर्मों की भावना को संग्रहित करती है . छठ के समय में यहां की छटा अलौकिक हो जाती है. वरिष्ठ कांग्रेस नेता राजन कुमार सिंह पंचायत के पूर्व मुखिया बृजकिशोर सिंह ने बताया कि हमारा गांव सच में धार्मिक एकता का अनूठा मिसाल है !

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हमारी लोक-संस्कृति हमेशा से हमारी परम्पराओं के साथ पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रही है| कुछ दशक पूर्व तक आम भारतीय इसकी कीमत भी समझते थे और इसको संजो कर रखने का तरीका भी जानते थे| लेकिन आज ये चोटिल है, आर्थिक उदारवाद से उपजे सांस्कृतिक संक्रमण ने सब कुछ जैसे ध्वस्त कर दिया है| हम नक़ल करने में माहिर हो चुके हैं, वहीं अपनी स्वस्थ परंपरा का निर्वहन करने में शर्मिंदगी महसूस करते हैं| आश्चर्य की बात है कि हर व्यक्ति यही कहता कि हमारी संस्कृति नष्ट हो गई है, उसे बचाना है, पाश्चात्य संस्कृति ने इसे ख़त्म कर दिया है| लेकिन शायद लोक परम्पराओं के इस पराभव में वो ख़ुद शामिल है| कौन है जो हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है? हमारी हीं संस्कृति क्यों प्रभावित हो रही दूसरे देशों की क्यों नहीं? आज भी दुनिया के तमाम देश अपनी लोक परम्पराओं को जतन से संजोये रखे हैं| दोष हर कोई दे रहा लेकिन इसके बचाव में कोई कदम नहीं, बस दोष देकर कर्त्तव्य की इतिश्री|लोक संस्कृति के जिस हिस्से ने सर्वाधिक संक्रमण झेला है वो है लोकगीत| आज लोकगीत गाँव, टोलों, कस्बों से गायब हो रहे हैं| कान तरस जाते हैं नानी दादी से सुने लोकगीतों को दोबारा सुनने के लिए|हमारे यहाँ हर त्यौहार और परंपरा के अनुरूप लोकगीत रहे हैं और आज भी ग्रामीण और छोटे शहरी क्षेत्रों में रहने वाले बड़े बुज़ुर्गों में इनकी अहमियत बनी हुई है| विवाह के अवसर पर राम-सीता और शिव-पार्वती के विवाह-गीत के साथ हीं हर विधि के लिए अलग अलग गीत, शिशु जन्म पर सोहर, बिरहा, कजरी, सामा-चकवा, तीज, भाई दूज, होली पर होरी, छठ पर्व पर छठी मइया के गीत, रोपाई बिनाई के गीत, धान कूटने के गीत, गंगा स्नान के गीत आदि सुनने को मिलते थे| जीवन से जुड़े हर शुभ अवसर, महत्वपूर्ण अवसर के साथ हीं रोज़मर्रा के कार्य केलिए भी लोक गीत रचे गए हैं|एक प्यारे से गीत के बोल याद आ रहे हैं जो अपने गाँव में बचपन में सुन हूँ…
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,
पुआ के बड़ाई अपन फुआ से कहिय,
ललन सुखदायी,
चूए ओठ से पानी ललन सुखदायी,
कचौड़ी के बड़ाई अपन भउजी से कहिय,
ललन सुखदायी …
खाना पर बना ये गीत बड़ा मज़ा आता था सुनने में| इसमें सभी नातों और खाने को जोड़ कर गाते हैं, जिसमें दुल्हा अपने ससुराल आया हुआ है और उसे कहा जा रहा कि यहाँ जो कुछ भी स्वागत में खाने को मिला वो सभी इतना स्वादिष्ट था कि अपने घर जाकर अपने सभी नातों से यहाँ के खाने की बड़ाई करना|
एक और गीत है जिसे भाई दूज के अवसर पर गाते हैं| इसमें पहले तो बहनें अपने भाई को श्राप देकर मार देती हैं फिर जीभ में काँटा चुभा कर स्वयं को कष्ट देती हैं कि इसी मुंह से भाई को श्राप दिया और फिर भाई की लम्बी आयु केलिए आशीष देती हैं…
जीय जीय ( भाई का नाम) भईया लाख बारिस
(बहन का नाम लेकर) बहिनी देलीन आसीस हे…
मुझे याद है गाँव में आस पास की सभी औरतें इकठ्ठी हो जाती थीं और सभी मिलकर एक एक कर अपने अपने भाइयों केलिए गाती थीं|| अब तो सब विस्मृत हो चुका, मेरे ज़ेहन से भी और शायद इस लोक गीत को गाने वाले लोगों की पीढ़ी के ज़ेहन से भी|पारंपरिक लोकगीत न सिर्फ अपनी पहचान खो रहा है बल्कि मौज़ूदा पीढ़ी इसके सौंदर्य को भी भूल रही है| हर प्रथा, परंपरा और रीति-रिवाज के अनुसार लोक गीत होता है, और उस अवसर पर गाया जाने वाला गीत न सिर्फ महिलाओं को बल्कि पुरुष को भी हर्षित और रोमांचित करता रहा है| लेकिन जिस तरह किसी त्योहार या प्रथा का पारंपरिक स्वरुप बिगड़ चुका है उसी तरह लोकगीत कह कर बेचे जाने वाले नए उत्पादों में न तो लोकरंग नज़र आता है न गीत| जहाँ सिर्फ लोक गीत होते थे अब उनकी जगह फ़िल्मी धुन पर बने अश्लील गीत ले चुके हैं| अब सरस्वती पूजा हो या दुर्गा पूजा, पंडाल में सिर्फ फ़िल्मी गीत हीं बजते हैं| होली पर गाये जाने वाला होरी तो अब सिर्फ देहातों तक सिमट चूका है| गाँव में भी रोपनी या कटनी के समय अब गीत नहीं गूंजते| सोहर, विरही, झूमर, आदि महज़ टी.वी चैनल के क्षेत्रीय कार्यक्रम में दीखता है| विवाह हो या शिशु जन्म या फिर कोई अन्य ख़ुशी का अवसर फ़िल्मी गीत और डी.जे का हल्ला गूंजता है| यहाँ तक कि छठ पूजा जो कि बिहार का सबसे बड़ा पर्व माना जाता, उसमें भी लाउड स्पीकर पर फ़िल्मी गाना बजता है| यूँ औरतें अब भी छठी मइया का हीं पारंपरिक गीत गातीं हैं| अब तो आलम ये है कि भजन भी अब किसी प्रचलित फ़िल्मी गाना की धुन पर लिखा जाने लगा है| किसी के पास इतना समय नहीं कि सम्मिलित होकर लोकगीत गायें| विवाह भी जैसे निपटाने की बात हो गई है| पूजा-पाठ हो या फिर त्योहार, करते आ रहे इसलिए करना है और जिसका जितना बड़ा पंडाल, जितना ज्यादा खर्च वो सबसे प्रसिद्द| लोक गीतों का वक़्त अब टी.वी ने ले लिया है| गाँव गाँव में टी.वी पहुँच चुका है, भले हीं कम समय केलिए बिजली रहे पर जितनी देर रहे लोग एक साथ होकर भी साथ नहीं होते, उनकी सोच पर टी.वी हावी रहता है| अब तो कुछ आदिवासी क्षेत्र को छोड़ दें तो कहीं भी हमारी पुरानी परंपरा नहीं बची है न पारंपरिक लोकगीत| अब अगर जो बात की जाए कि कोई लोकगीत सुनाओ तो बस भोजपुरी अश्लील गाना सुना दिया जाता, जैसे कि ये लोकगीत का पर्याय बन चुका हो|नहीं मालूम लोकगीत का पुनरागमन होगा कि नहीं, लेकिन पूर्वी भारत में लोक गीतों का लुप्त होना इस सदी का सबसे बड़ा सांस्कृतिक क्षय है क्योंकि परिवार और समाज की टूटन कहीं न कहीं इससे हीं प्रभावित है| गाँव से पलायन, शहरीकरण और औद्द्योगीकरण इस सांस्कृतिक ह्रास का बहुत बड़ा कारण है| हम किसी संस्कृति को दोष नहीं दे सकते कि उसके प्रभाव से हमारी संस्कृति नष्ट हुई है| बल्कि हम स्वयं इन सबको छोड़ रहे और जिंदगी को जीने केलिए नहीं बल्कि प्रतिस्पर्धा में झोंक रहे हैं| पारंपरिक लोकगीत गाने वाले अब बहुत कम लोग बचे हैं और आज की पीढ़ी सीखना भी नहीं चाहती| ऐसे में लोक गीत का भविष्य क्या होगा? क्या यूँ हीं अपनी पहचान खोकर कहीं किसी कोने में पड़े पड़े अपने हीं लिए गाये शोक गीत?
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